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Saturday, 3 July 2021

' पंच कैलाश , हमारे भारत और तिब्बत में स्थित 5 अलग-अलग कैलाश पर्वत हैं जिन्हें सम्मिलित रूप से पंच कैलाश नाम दिया गया है ।।

' पंच कैलाश , हमारे भारत और तिब्बत में स्थित 5 अलग-अलग कैलाश पर्वत हैं जिन्हें सम्मिलित रूप से पंच कैलाश नाम दिया गया है ।। 

शिव भक्तों के लिए मोक्ष प्राप्ति हेतु पंच कैलाश यात्रा को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है , सभी 5 कैलाश हिमलाय पर्वतश्रृंखला में स्थित हैं ! अधिकांश यात्री पंच कैलाश यात्रा को सत्य की यात्रा और एक महान आध्यात्मिक अनुभूति का अनुभव मानते हैं , आइये पंच कैलाश यात्रा में सम्मिलित कैलाश पर्वतों के बारे में संक्षिप्त में जानते हैं ।।

1. आदि कैलाश (छोटा कैलाश)

आदि कैलाश (छोटा कैलाश) भारत तिब्बत सीमा के बिलकुल पास भारतीय सीमा क्षेत्र के अंदर स्थित है , छोटा कैलाश उत्तराखंड के धारचूला जिले में स्थित है। यह क्षेत्र उत्तम प्राकृतिक सुंदरता, शांति और सम्प्रभुता से भरा पूरा है। यह क्षेत्र बहुत ही शांत है, शांति की तलाश कर रहे यात्रियों के लिए यह स्थान अति उत्तम साबित होता है ! बहुत से लोग एक सामान रूप के चलते आदि कैलाश और मुख्य कैलाश में भ्रमित हो जातें हैं। आदि कैलाश के समीप एक झील स्थित है जिसे "पार्वती ताल" कहा जाता है ।।

2. किन्नौर कैलाश

किन्नौर कैलाश हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले की किन्नौर घाटी में स्थित है। इसकी ऊंचाई लगभग 6050 मीटर है। इसका अपना एक पौराणिक इतिहास है , किंवदंतियों के अनुसार किन्नौर कैलाश के समीप देवी पार्वती द्वारा निर्मित एक सरोवर है, जिसे उन्होंने पूजा के लिए बनाया था, इसे "पार्वती सरोवर" के नाम से जाना जाता है। इस स्थान को भगवान शिव और देवी पार्वती का मिलन स्थल भी माना जाता है !  स्थानीय लोगों के अनुसार इस पर्वत की चोटी पर एक पक्षियों का जोड़ा रहता है। लोग इन पक्षियों को माता पार्वती और भगवान शिव मानते हैं। इस कैलाश को बहुत आध्यात्मिक माना जाता है क्योंकि भले पुरे क्षेत्र में कितनी भी बर्फ क्यों न गिरे पर किन्नौर कैलाश कभी भी बर्फ से नहीं ढकता है ।।

3. श्रीखंड कैलाश

श्रीखंड कैलाश हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में स्थित है , समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग 5227 मीटर है , यहाँ पहुँचने के लिए हिमालय श्रृंखलाओं से होते हुए कई ग्लेशियर पार करने होते हैं ! इस पर्वत के बारे में एक पौराणिक कथानुसार कहा जाता है कि भस्मासुर ने इस पर्वत पर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न कर वरदान की प्राप्ति की थी। भगवान शिव ने भस्मासुर को किसी के भी सिर पर हाथ रखकर उसे भस्म करने का वरदान दिया था !! भस्मासुर अपने वरदान की सत्यता को जांचने के उद्देश्य से भगवान शिव के सिर पर हाथ रखने की कोशिश करने लगा तब भगवान शिव वहां से भाग खड़े हुए ,  भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण करके भस्मासुर के साथ नृत्य करते हुए उसका हाथ उसी के सिर पर रखवा दिया और इस प्रकार भगवान शिव की रक्षा की थी , भस्मासुर इसी पर्वत पर भस्म हुआ था ऐसा किंवदंतियों में कहा गया है ।।

4. चम्बा कैलाश (मणिमहेश कैलाश)

मणिमहेश कैलाश हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में स्थित है, इस कारण इसे चम्बा कैलाश भी कहा जाता है। इसकी ऊंचाई लगभग 5653 मीटर है , यह भुधिल घाटी से 26 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। मणिमहेश कैलाश के समीप मणिमहेश झील है जो कि मानसरोवर झील के समानान्तर ऊंचाई पर बहती है , आज तक के इतिहास के अनुसार आज तक कोई भी आगंतुक इस पर्वत की चढ़ाई को पूरा नहीं कर पाया है। 1968 में नंदिनी पटेल नाम की महिला ने इस पर्वत पर चढ़ाई की कोशिश की थी परन्तु उसे बीच में ही अभियान को रोकना पड़ा था , पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव ने माता पार्वती से विवाह के पूर्व इस पर्वत को बनाया था , ऐसा माना जाता है कि यह भगवान शिव के निवास स्थलों में से एक है और भगवान शिव अपनी पत्नी के साथ अक्सर यहाँ घूमते हैं..!! 

5. कैलाश पर्वत (मुख्य कैलाश)

कैलाश पर्वत तिब्बत में स्थित है , सभी कैलाश पर्वतों में यह 6638 मीटर की ऊंचाई के साथ सबसे ऊँचा है। यह स्थल न केवल हिन्दू धर्म में अपितु बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि धर्मों में भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है !! हिन्दू पौराणिक गाथाओं के अनुसार यहाँ पर भगवान शिव ने लम्बे समय तक निवास किया है, शिव यहाँ पर ध्यान भी करते थे , कैलाश पर्वत को भगवान शिव के भक्तों के साथ-साथ अन्य धर्मों के अनुयायियों को भी आध्यात्मिक मुक्ति, मोक्ष और आनंद प्रदान करने वाला माना गया है। कैलाश पर्वत के पास मानसरोवर झील और रक्षास्थल स्थित हैं ।।

 आज तक कैलाश पर्वत पर कोई भी नहीं चढ़ पाया है ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि माना जाता है कि कैलाश पर्वत अपनी स्थिति बदलता रहता है।। 

हर हर महादेव 🙏


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Wednesday, 25 November 2020

अमरनाथ के अलावा --कश्मीर का दूसरा अन्य प्राकृतिक शिवलिंग

अमरनाथ के अलावा --कश्मीर का दूसरा अन्य प्राकृतिक शिवलिंग 
टिम्मरसैंण महादेव भगवान शिव की एक गुफा है जो उत्तराखंड के चमोली जिले के नीती गांव में स्थित है। यह गुफा जम्मू और कश्मीर के अमरनाथ मंदिर की तरह प्राकृतिक रूप से प्रसिद्ध है। क्योंकि यहाँ बर्फ का एक प्राकृतिक शिवलिंग है, इस स्थान को दिन प्रतिदिन लोकप्रियता मिल रही है।
सर्दियों के मौसम में, चमोली की टिम्मरसैंण महादेव की इस आध्यात्मिक गुफा में एक प्राकृतिक शिवलिंग बनता है। यह गाँव भारत-चीन सीमा पर बर्फ से ढकी गढ़वाल हिमालय की गोद में बसा है। इस स्थान पर जाने के लिए विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है। 
शिवलिंग लगभग जम्मू की अमरनाथ गुफा के शिवलिंग जैसा दिखता है। चमोली गढ़वाल के नीती – क्षेत्र में महादेव गुफा एक बहुत ही पवित्र स्थान है। यहाँ स्थानीय निवासी भगवान शिव लिंग के दर्शन करने आते हैं और गर्मी के मौसम में भगवान शिव को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।


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Monday, 31 August 2020

उतराखंड का "पाताल भुवनेश्वरम" मंदिर देवदार के घने जंगलों के बीच अनेक भूमिगत गुफाओं का संग्रह !

उतराखंड का "पाताल भुवनेश्वरम"  मंदिर  देवदार के घने जंगलों के बीच अनेक भूमिगत गुफाओं का संग्रह !
पाताल_भुवनेश्वर उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जनपद का प्रमुख पर्यटक केंद्र है। उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में प्रसिद्ध नगर अल्मोड़ा के शेराघाट से होते हुए 160 किमी की दूरी तय करके पहाड़ी वादियों के बीच गंगोलीहाट में स्थित है। पाताल भुवनेश्वर देवदार के घने जंगलों के बीच अनेक भूमिगत गुफाओं का संग्रह है। जिसमें से एक बड़ी गुफा के अंदर भगवान शंकर जी का मंदिर स्थापित है। यह सम्पूर्ण परिसर 2007 से भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा अपने कब्जे में ले लिया गया है। पाताल भुवनेश्वर गुफ़ा में ऐसे कई रहस्यमयी इतिहास जुड़ा है जो वर्तमान में शायद ही किसी को पता हो। यह गुफ़ा प्रवेश द्वार से 160 मीटर लम्बी और 90 फ़ीट गहरी है। पाताल भुवनेश्वर गुफ़ा में केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ के दर्शन भी होते है।
इस गुफा की खोज राजा ऋतुपर्णा ने की थी, जो सूर्य
वंश के राजा थे और त्रेता युग में अयोध्या पर शासन करते थे।
स्कंदपुराण में वर्णन है कि स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान रहते हैं और अन्य देवी देवता उनकी स्तुति करने यहां आते हैं। यह भी वर्णन है कि राजा ऋतुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने इस गुफा के भीतर महादेव शिव सहित ३३ कोटि देवताओं के साक्षात दर्शन किये थे। द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलयुग में जगदगुरु आदि शंकराचार्य का ८२२ ई के आसपास इस गुफा से साक्षात्कार हुआ तो उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया।
गुफा के अंदर जाने के लिए लोहे की जंजीरों का सहारा लेना पड़ता है यह गुफा पत्थरों से बनी हुई है इसकी दीवारों से पानी रिस्ता रहता है जिसके कारण यहां के जाने का रास्ता बेहद चिकना है। गुफा में शेष नाग के आकर का पत्थर है उन्हें देखकर एेसा लगता है जैसे उन्होंने पृथ्वी को पकड़ रखा है। इस गुफा की सबसे खास बात तो यह है कि यहां एक शिवलिंग है जो लगातार बढ़ रहा है। वर्तमान में शिवलिंग की ऊंचाई 1.50 feet है और शिवलिंग को छूने की लंबाई तीन feet है यहां शिवलिंग को लेकर यह मान्यता है कि जब यह शिवलिंग गुफा की छत को छू लेगा, तब दुनिया खत्म हो जाएगी। संकरे रास्ते से होते हुए इस गुफा में प्रवेश किया जा सकता है।
 कुछ मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव ने क्रोध के आवेश में गजानन का जो मस्तक शरीर से अलग किया था, वह उन्होंने इस गुफा में रखा था। दीवारों पर हंस बने हुए हैं जिसके बारे में ये माना जाता है कि यह ब्रह्मा जी का हंस है। गुफा के अंदर एक हवन कुंड भी है। इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि इसमें जनमेजय ने नाग यज्ञ किया था जिसमें सभी सांप जलकर भस्म हो गए थे। इस गुफा में एक हजार पैर वाला हाथी भी बना हुआ है।

 कैसे पहुँचे :-

पाताल भुवनेश्वर मंदिर  जाने के कई रास्ते हैं। यहां जाने के लिए ट्रेन से काठगोदाम या टनकपुर जाना होगा। उसके आगे सड़क के रास्ते ही सफर करना होगा। अल्मोड़ा  से पहले गंगोलीहाट शेराघाट, या बागेश्‍वर, या दन्या होकर जा सकते हैं।
टनकपुर, पिथौरागढ़ से भी गंगोलीहाट जा सकते हैं। 

सड़क मार्ग :-

दिल्ली से बस द्वारा 350 कि.मी. यात्रा कर आप अल्मोड़ा पहुंच कर विश्राम कर सकते है और वहां से अगले दिन आगे की यात्रा जारी रख सकते हैं।
रेलवे द्वारा यात्रा करनी हो तो काठगोदाम अन्तिम रेलवे स्टेशन है वहां से आपको बस या प्राइवेट वाहन बागेश्‍वर, अल्मोड़ा के लिए मिलते रहते हैं।



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Saturday, 22 August 2020

भारतीय इतिहास के इस मंदिर को एक बार देखे बिना मृत्यु होना मतलब आप का भारत मे जन्म लेना व्यर्थ है।

भारतीय इतिहास के इस मंदिर को एक बार देखे बिना मृत्यु होना मतलब आप का भारत मे जन्म लेना व्यर्थ है।

भारत का गौरव दुनिया का अजूबा चेन्‍नाकेशव मंदिर, बेलूर यह मंदिर कर्नाटक राज्य के हासन ज़िले के बेलूर नामक ऐतिहासिक स्थान पर स्थित हैं। 
यह मंदिर क़रीब 900 वर्ष पुराना हैं। इस मंदिर का निर्माण होयसल वंश के राजा विष्णुवर्धन द्वारा 1106 से 1117 के बीच करवाया गया था। 1104 में युद्ध जीतने की ख़ुशी में विष्णुवर्धन ने इस मंदिर का निर्माण कार्य शुरू करवाया जो की 1117 में पूरा हुआ।
पुराने दिनों के दौरान, यह "द्वारसमुद्र" के रूप में जाना जाता था, जिसका अर्थ है "समुद्र का द्वार"।
इस मंदिर की कई जगाह इतनी महीन शिल्पकारी है कि जिसे सामान्य आंखों से देख पाना ना मुमकिन है उसे देखने समझने के लिए मेग्नीफाइन ग्लॉस की जरूरत होती है सोचिये ये उस 10वी 11वी सदी के कारीगरों ने बनाया कैसे होगा जबकि मेग्नीफाईन ग्लास की खोज 1296 में इंग्लैंड में हुई है।
आधुनिक दुनिया मे होली की पिचकारी की खोज और पेटेंट 1896 का है पर इस मंदिर के शिल्पों में 10वी 11वी सदी में ही होली में पिचकारी का उपयोग करते हुवे शिल्प है जिन्हें हाली ही में खोजा गया है


ये मंदिर स्थापत्य कला का अदभुत नज़ारा पेश करता है । मुस्लिम आक्रांताओ ने इस मंदिर को बार बार लूटा लेकिन हिंदू राजाओं ने इसका उतनी ही बार जीर्णोद्वार करवाया ।

स्थापत्य विशेषताएँ

मन्दिर 178 फुट लम्बा और 156 फुट चौड़ा है। परकोटे में तीन प्रवेशद्वार हैं, जिनमें सुन्दिर मूर्तिकारी है। इसमें अनेक प्रकार की मूर्तियाँ जैसे हाथी, पौराणिक जीवजन्तु, मालाएँ, स्त्रियाँ आदि उत्कीर्ण हैं।

प्रवेशद्वार


मन्दिर का पूर्वी प्रवेशद्वार सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ पर रामायण तथा महाभारत के अनेक दृश्य अंकित हैं। मन्दिर में चालीस वातायन हैं। जिनमें से कुछ के पर्दे जालीदार हैं और कुछ में रेखागणित की आकृतियाँ बनी हैं। अनेक खिड़कियों में पुराणो तथा विष्णुवर्धन की राजसभा के दृश्य हैं। मन्दिर की संरचना दक्षिण भारत के अनेक मन्दिरों की भाँति ताराकार है। इसके स्तम्भों के शीर्षाधार नारी मूर्तियों के रूप में निर्मित हैं और अपनी सुन्दर रचना, सूक्ष्म तक्षण और अलंकरण में भारत भर में बेजोड़ कहे जाते हैं। ये नारीमूर्तियाँ मदनकई (मदनिका) नाम से प्रसिद्ध हैं।

गिनती में ये 38 हैं, 34 बाहर और शेष अन्दर। ये लगभग 2 फुट ऊँची हैं और इन पर उत्कृष्ट प्रकार की श्वेत पालिश है, जिसके कारण ये मोम की बनी हुई जान पड़ती है। मूर्तियाँ परिधान रहित हैं, केवल उनका सूक्ष्म अलंकरण ही उनका आच्छादान है। यह विन्यास रचना सौष्ठव तथा नारी के भौतिक तथा आंतरिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के लिए किया गया है।

भाव-भंगिमाओं के अंकन

मूर्तियों की भिन्न-भिन्न भाव-भंगिमाओं के अंकन के लिए उन्हें कई प्रकार की क्रियाओं में संलग्न दिखाया गया है। एक स्त्री अपनी हथेली पर अवस्थित शुक को बोलना सिखा रही है। दूसरी धनुष संधान करती हुई प्रदर्शित है। तीसरी बाँसुरी बजा रही है, चौथी केश-प्रसाधन में व्यस्त है, पाँचवी सद्यः स्नाता नायिका अपने बालों को सुखा रही है, छठी अपने पति को तांबूल प्रदान कर रही है और सातवीं नृत्य की विशिष्ट मुद्रा में है।


इन कृतियों के अतिरिक्त बानर से अपने वस्त्रों को बचाती हुई युवती, वाद्ययंत्र बजाती हुई मदविह्वला नवयौवना तथा पट्टी पर प्रणय सन्देश लिखती हुई विरहिणी, ये सभी मूर्तिचित्र बहुत ही स्वाभाविक तथा भावपूर्ण हैं। एक अन्य मनोरंजक दृश्य एक सुन्दरी बाला का है, जो अपने परिधान में छिपे हुए बिच्छू को हटाने के लिए बड़े संभ्रम में अपने कपड़े झटक रही है। उसकी भयभीत मुद्रा का अंकन मूर्तिकार ने बड़े ही कौशल से किया है। उसकी दाहिनी भौंह बड़े बाँके रूप में ऊपर की ओर उठ गई है और डर से उसके समस्त शरीर में तनाव का बोध होता है। तीव्र श्वांस के कारण उसके उदर में बल पड़ गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप कटि और नितम्बों की विषम रेखाएँ अधिक प्रवृद्ध रूप में प्रदर्शित की गई हैं।

कला की चरमावस्था

मन्दिर के भीतर की शीर्षाधार मूर्तियों में देवी सरस्वती का उत्कृष्ट मूर्तिचित्र देखते ही बनता है। देवी नृत्यमुद्रा में है जो विद्या की अधिष्ठात्री के लिए सर्वथा नई बात है। इस मूर्ति की विशिष्ट कलाकी अभिव्यजंना इसकी गुरुत्वाकर्षण रेखा की अनोखी रचना में है। यदि मूर्ति के सिर पर पानी डाला जाए तो वह नासिका से नीचे होकर वाम पार्श्व से होता हुआ खुली वाम हथेली में आकर गिरता है और वहाँ से दाहिने पाँव मे नृत्य मुद्रा में स्थित तलवे (जो गुरुत्वाकर्षण रेखा का आधार है) में होता हुआ बाएँ पाँव पर गिर जाता है। वास्तव में होयसल वास्तु विशारदों ने इन कलाकृतियों के निर्माण में मूर्तिकारी की कला को चरमावस्था पर पहुँचा कर उन्हें संसार की सर्वश्रेष्ठ शिल्पकृतियों में उच्चस्थान का अधिकारी बना दिया है। 1433 ई. में ईरान के यात्री अब्दुल रज़ाक ने इस मन्दिर के बारे में लिखा था


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Wednesday, 19 August 2020

दिल्ली से बस दो घंटे की दूरी पर राजस्थान का खुबसुरत प्राचीन नीलकंठ महादेव मंदिर

ये उस वक्त की बात है जब मैं अपने दोस्तों के साथ एक पार्टी मे गया था तो मेरे मित्र सुचित से मुझे एक टेंपल के बारे में पता चला वैसे मैं आपको बता दू ये उसकी पसंदीदा जगहों में से एक हैं।उसकी ऐतिहासिक तथ्यों को जान कर मुझे खुजराहों की याद आ गई और मैं उस जगह को देखने के लिए  काफी उत्साहित हो गया । फिर क्या था मेरे अंदर का घुमकरी इंसान जागा और मैं अपने दोस्तों के संग निकल गया नीलकंठ मंदिर देखने को और उसके बारे में और जानने को।

Photo of राजगढ़ by Yadav Vishal

पता नहीं किस वर्ष में राजा अजयपाल ने नीलकण्ठ महादेव की स्थापना की। यह जगह मामूली सी दुर्गम है। जब भानगढ से अलवर की तरफ चलते हैं तो रास्ते में एक कस्बा आता है- टहला। टहला से एक सडक राजगढ भी जाती है। टहला में प्रवेश करने से एक किलोमीटर पहले एक पतली सी सडक नीलकण्ठ महादेव के लिये मुडती है। यहां से मन्दिर करीब दस किलोमीटर दूर है। धीरे धीरे सडक पहाडों से टक्कर लेने लगती है। हालांकि इस कार्य में सडक की बुरी अवस्था हो गई है  कारें इस सडक पर चलना बहुत ही मुश्किल है, जीपें और मोटरसाइकिलें कूद-कूदकर निकल जाती हैं।

Photo of राजस्थान में भी छुपा है एक खुजराहों, दिल्ली से बस दो घंटे की दूरी पर by Yadav Vishal

यहां एक छोटे से गांव से निकलते हुए हम मन्दिर तक पहुंचे। टहला से चलने के बाद पहाड पर चढकर एक छोटे से दर्रे से निकलकर एक घाटी में प्रवेश करते हैं। यह घाटी चारों तरफ से पहाडों से घिरी है, साथ ही घने जंगलों से भी।इस गांव का नाम भी नीलकंठ ही हैं।

जैसा कि हम जानते हैं कि सावन के माह में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए देश दुनिया में अलग अलग तरह से और भिन्न भिन्न मन्दिरों में शिव अराधना की गई हैं. राजस्थान में भी अलग अलग हिस्सों में विभिन्न शैलियों में बने मन्दिर और शिवलिंग विराजमान हैं जहां भक्तों की भीड़ पड़ती है। लेकिन अलवर में स्थित है राजस्थान का खजुराहो। जो नीलकण्ठ के नाम से जाना जाता है और 1000 साल से ज्यादा पुराना ये मन्दिर आज भी लोगों की आस्था का केन्द्र है.  बताते हैं कि इस घाटी में कभी 360 मन्दिर हुआ करते थे। अब एक ही मन्दिर बचा हुआ है। बाकी सभी को मुसलमानों ने मटियामेट कर दिया। आखिरी को मटियामेट करते समय चमत्कार हुआ और यह बच गया। बचा हुआ ही नीलकण्ठ महादेव मन्दिर है। यहां सावन में श्रद्धालु हरिद्वार आदि स्थानों से गंगाजल लाकर चढाते हैं। ध्वस्त हुए मन्दिरों को देवरी कहते हैं।

इनके ध्वंसावशेष आज भी काफी संख्या में बचे हैं। इन्हें देखने से पता चलता है कि ये कितने बडे बडे मन्दिर हुआ करते थे। सभी मन्दिरों पर छैनी हथौडे का कमाल देखते ही बनता है। सभी देवरियों के अलग-अलग नाम हैं जैसे कि हनुमान जी की देवरी, गणेश जी की देवरी आदि। कुछ बडे ही विचित्र विचित्र नाम भी हैं, मैं भूल गया हूं। खेतों के बीच झाडियों से घिरी देवरियों तक पहुंचना बडा रोमांचकारी काम होता है। कैसे हाथ चला होगा इन मन्दिरों को तोडने समय?

इस घाटी में मोर बहुतायत में है। हर खेत में, हर पेड पर, हर छत पर, हर देवरी पर... सब जगह मोर ही बैठे मिलते हैं। हालांकि आदमी से दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। घाटी के एक सिरे पर छोटी सी झील है। इसमें एक बांध बनाया गया है और इसकी आकृति ऐसी है कि पूरी घाटी का पानी यही आकर इकट्ठा होता रहता है।

बाकी आप इस मंदिर की सुंदरता फोटो के माध्यम से देख सकते हैं.....

Photo of राजस्थान में भी छुपा है एक खुजराहों, दिल्ली से बस दो घंटे की दूरी पर by Yadav Vishal
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अगर आप अलवर में नीलकंठ महादेव मंदिर घूमने जाने का प्लान बना रहे है तो नवंबर से मार्च नीलकंठ महादेव मंदिर व यहाँ के अन्य भागों की यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय होता है क्योंकि रात में मौसम के दौरान तापमान 8 डिग्री और जबकि दिन का 32 डिग्री सेल्यियस होता है। जो अलवर की यात्रा के लिए सबसे अनुकूल समय होता है।

नीलकंठ मंदिर अलवर कैसे पंहुचा जाये 

अगर आप नीलकंठ मंदिर अलवर घूमने का प्लान बना रहे है तो बता दे कि आप आप ट्रेन, सड़क या हवाई मार्ग से नीलकंठ महादेव मंदिर अलवर पहुच सकते हैं।

फ्लाइट से नीलकंठ मंदिर अलवर कैसे पहुँचे – 

अलवर के लिए कोई सीधी फ्लाइट कनेक्टिविटी नहीं है। अलवर का निकटतम हवाई अड्डा दिल्ली में है जो अलवर से 165 किमी दूर स्थित है। तो आप भारत के किसी भी प्रमुख शहर से यात्रा करके दिल्ली हवाई अड्डा पहुंच सकते है और वहा से अलवर पहुंचने के लिए आप बस या टैक्सी किराए पर लेकर पहुंच सकते हैं, और फिर अलवर से टैक्सी या बस से नीलकंठ महादेव  मंदिर पहुच सकते हैं।

सड़क मार्ग से नीलकंठ महादेव मंदिर अलवर कैसे जाये – 

अगर आप सड़क मार्ग से यात्रा करके अलवर की यात्रा की योजना बना रहे है तो आपको बता दे की राज्य के विभिन्न शहरों से अलवर के लिए नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं। चाहे दिन हो या रात इस रूट पर नियमित बसे उपलब्ध रहती हैं। जयपुर, जोधपुर आदि स्थानों से आप अलवर के लिए टैक्सी या कैब किराए पर या अपनी कार से यात्रा करके नीलकंठ महादेव  मंदिर अलवर पहुच सकते हैं।

ट्रेन से नीलकंठ महादेव मंदिर अलवर कैसे पहुँचे –

नीलकंठ मंदिर का सबसे निकटम रेलवे स्टेशन अलवर जंक्शन है  जो शहर का प्रमुख रेलवे स्टेशन है जहां के लिए भारत और राज्य के कई प्रमुख शहरों से नियमित ट्रेन संचालित हैं। तो आप ट्रेन से यात्रा करके अलवर पहुंच सकते है और वहा से बस से या टैक्सी किराये पर ले कर नीलकंठ महादेव मंदिर पहुंच सकते हैं।

पढ़ने के लिए धन्यवाद। अपने सुंदर विचारों और रचनात्मक प्रतिक्रिया को साझा करें अगर आपको यह लेख अच्छा लगा हो तो।



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